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मैं धर्माधिकारी नहीं हूँ। पर मुझे चिड़ हो गयी है। चिड़ कहूँ ? या घिन ? शायद नफ़रत ? मैं ये क्यूँ लिखूँ ? क्या फ़ायदा? और वो भी एसी भाषा , जिसके शब्द को आज कहीं कोई तूल नहीं देता, शायद बस कुछ नाटक नौटंकी वाले, जिनका भाषाधिकारी बनना उनके अस्तित्व को बड़ा अर्थ देता है। नुमाइश करने का बड़ा महरूम तरीक़ा। क्रांतिकारियों के बाद, ये भाषा ही एक उनकी वसीहत रह गयी थी, इसका इस्तमाल मंच पर करके, हम बड़ा बहादुर महसूस करते हैं। हर इंसान को बहादुर बनने का मौका चाहिए, असल ज़िन्दगी में हो, या गड़ंत। इसी लिए शायद, मैं जितने महान अभिनेताओं से परिचित हूँ, हक़ीकत में वो सब ज़रा पंगु हैं। खैर। मुझे उनसे चिड़ नहीं है, माफ़ कीजिये, मात्र विचारों का प्रवाह कहीं से कहीं ले गया। हाँ। मेरी इस घिन का कारण कहाँ से शुरू हुआ? शायद उम्मीद से। वो क्या है की बचपन से शायद मुझे इंसानों पर विश्वास करवा दिया गया। बचपन से ही किताबों में, और लतीफों में, हर कहानी में , ऐसे इंसान ज़रूर होते थे जो बड़े साहसी, विनम्र, शांत, मर्यादा-पुरषोत्तम और दृड़-संकल्पी होते थे। जो लोग अंग्रेजी के बड़े भक्त हैं, वो अभी तक ये लेख पढ़ के कुछ मन ही मन उबासी लेते होंगे। खैर। बुंदेलखंड के योध्दा हारते हुए युद्ध में भी अपनी सेना अर्पण करते थे, कर्ण को ज्ञात था की सुयोधन दुर्योधन है, रानी सारंधा ने अपने अभिमान के बदले सारा राज्य सौंपा। अंग्रेजी में भी , अनगिनत ऐसी कहानियां, घुट्टी बना के पिला दी गयीं। बड़ा गलत हुआ। गलत हुआ कि एक विश्वास जड़ बनके मन की किसी ज़मीन पर बरगद बन गया। हाँ बच्चू, तुझे दुनिया में ऐसे भी लोग मिलेंगे। इतनी कहानियां हैं, तो हर सौ में से, या हज़ार में से एक तो ऐसा होगा ही। जा वत्स, छोंक दे खुदको! बहुत भयानक जड़ है, मुझ को लेकर डूबी है ये। अब मैं जिस कौम के लोगों की बात करता हूँ, वो सबसे भयानक हैं। पहली नज़र में, वो या तो बड़े साधारण मालूम होते हैं, या अगर आपकी किस्मत लोटा लेकर गयी हो, तो बहुत होशियार। बड़ा काम करते हैं। आजकल बड़ा काम करना, बहुत देर तक काम करना, और फिर बहुत, इन्ही के शब्दों में, "भंड " हो जाना, माँ -बाप को शाम का एक पंद्रह मिनिट का वक़्त बनाना ( जब शाम को उनका फ़ोन आये), उत्तम जीवन की पराकाष्ठ है। इस कौम में, जो या तो सबसे ज़्यादा व्यस्त है, या सबसे ज्यादा "भंड " है, पुजारी है। इनके उसूल बड़े साफ़ हैं, अगर दिखता है या दिखाया जा सकता है, तो करो। शायद मुझे दया आती है। क्यूँ? पता नहीं। रोज़ काम पर जाओ, वहाँ इतना चुसो , कि शाम को आकर गलती से खुद से रूबरू न हो पाए। अगर कोई भी आपको आईना दिखाने की जुर्रत करे , तो उससे तुरंत कोई भी नाता तोड़ लो। अगर ये आपके माँ बाप हों, तो उनसे कुछ रोज़ के लिए रूठ जाओ। वो भी क्या करें, औलाद है, मनाना पड़ेगा, और फिर, बेचारा "दिन-रात" काम भी तो करता है। इनके कोई दोस्त नहीं है। खूब यार हैं। सबके साथ खूब जश्न होता है। ऐसे लोग ढूंढ लो, जो ज़िन्दगी में आपके बराबर दिशाहीन हों। इन सबका एक बड़ा झुण्ड बनाकर, कुछ ऐसा करो की खूब शोर हो। ऐसा की दिशाहीनता अपने आप में महान बन जाए। और फिर अपने सड़े गले कहीं से पढ़े या सुने हुए उसूल, दुनिया के मूंह पे मारो। खूब जोर जोर से हंसो। देखो, कहीं कोई शीशा तो नहीं? कोई आरसी तो नहीं पहना? दूर भागो। दुनिया की वाहवाही सुनो। पर एक दिन, जब थोडा सा धुंआ छ्टता है , दूर आपको अपना आईने-वाला दिखता है, जो शायद कभी बहुत रोया होगा जब उसके हाथ टूटे हुए शीशे से लहू-लुहान हुए होंगे। पर अब वो खुश है। कहीं बुढ़ापे की ओर चलते माँ -बाप, जिनको अब आप जानते नहीं, सिवाय कुछ दिवाली-होली की छुट्टियों के, और हाँ, आपके यार, जो अब अपने-अपने झुण्ड बनाकर घर चले गए हैं। अब आप हैं, सिर्फ आप। आत्महीन , प्रणयहीन, प्राणहीन। तो मुबारक है, इस कौम को इसका नया ईमान। इससे फक्र से निभाईये, क्यूंकि जब आखिर में आपका अकेलापन आपसे सवाल पूछेगा, तो जवाब आप इसी ईमान में खोजिएगा। और हाँ, मेहरबानी होगी की आप ये लेख अपने मुंह पर फेका हुआ एक कागज़ समझें। बड़ी तस्सल्ली मिलेगी। क्यूंकि मैं धर्माधिकारी नहीं हूँ। बस खीज है।


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