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फ़रार हूँ

कल सुबह जब , मैं उठा था , खिड़कियों से झाँक कर के गुनगुनी सी धूप पड़ते , यूँ लगा कि ज़िन्दगी का प्यार हूँ। इस सुबह , फ़रार हूँ। उस सुबह से , इस सुबह में , फ़र्क इतना गहरा है कि आँख खुलकर सिर पड़ा था, सिर उठाकर मैं जगा तो , जिस्म ने पुछा कि , क्यों तैयार हूँ ? फ़रार हो। फ़रार हूँ। अब ये आँखें रौशनी से जूझती हैं। मूँद करके कहाँ जाने चल रहा हूँ। वो कहें तो पहन लूँ , वो कहें उतार दूँ। फ़रार हूँ। घर कभी आने की सोचूँ , डर सा लग जाता है क्योंकि अब झूठ हूँ मैं , वो नहीं हूँ। इक बाँझ तस्सवुर , कुछ अधूरी ख्वाहिशों का क़रार हूँ। फ़रार था , फ़रार हूँ।


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