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नींद
- Neeti Nayak
- Nov 21, 2012
- 1 min read
बड़ी देर से नींद खुली है, चाहता हूँ कि वापस सो जाऊँ। बहुत कोशिश की, पर उठा भी दिनों में हूँ, अब बदन पड़ा है। पर दिल को, उठना मंज़ूर नहीं। शायद अब भूख लगी है। शायद आँखें रौशनी से अब गुफ़्तगू करना चाहती हैं। पर ये दिल, वही दिनों पुरानी सनी सल पड़ी तकिया जकड़े पड़ा है। आँखें खुलने ही नहीं देता। कहता है, नहीं, अभी तुम सोए ही हो। उठना मंज़ूर नहीं। सोचता हूँ, सुनता हूँ, कौन बुलाता है? कोई नहीं। क्या मतलब है कि फिरसे अपनी नुमाइश करने, दुनिया के दहाड़ते हुए जनाज़े में फिक जाऊँ? भाड़ में जाए। पड़े रहो। दिल की इस अलाली का बहाना ले लो। सोना महदूद नहीं।
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